पीएम मोदी हुए मोहर्रम के ग़म में शामिल, आखिर कौन है इमाम हुसैन और क्यों मनाया जाता है मोहर्रम ?


इस्लामिक कैलेंडर का पहला महीना मोहर्रम का महीना होता है जिसे ग़म का महीना कहते हैं. इस मोहर्रम महीने की 10 तारीख को आशूरा का दिन कहते हैं। जिसमें पैगंबर मोहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन अपने 71 साथियों के साथ 3 दिन के भूखे प्यासे शहीद हुए थे।


नई दिल्ली (आस्था डेस्क)। इस्लामिक कैलेंडर का पहला महीना मोहर्रम का महीना होता है जिसे ग़म का महीना कहते हैं। इस मोहर्रम महीने की 10 तारीख को आशूरा का दिन कहते हैं। जिसमें पैगंबर मोहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन अपने 71 साथियों के साथ 3 दिन के भूखे प्यासे शहीद हुए थे। उन 72 शहीदों में सबसे छोटा शहीद 6 महीने के इमाम हुसैन के बेटे अली असगर थे, इन सभी शहीदों को सिर्फ हक़, इंसानियत और सच के रास्ते पर चलने की वजह से यज़ीद नाम के एक शासक के द्वारा मार दिया गया था। यज़ीद बेगुनाहों पर ज़ुल्म करना, हक़ को छीनना, गलत रास्ते पर चलना,किसी भी इंसान को कत्ल करा देना समेत सारे तानाशाही कदम उठाता था, जिससे इस्लाम को बदनाम कर सके कि इस्लाम में इस तरह से ही बेजुर्म लोगों को अपना शिकार बनाया जाता है। वहीं जितने भी आस पास राज्य की सरकार होती थी उसमें भी ज़बरदस्ती उसने अपनी हुकुमत कायम करना चाह रहा था। जिससे लोग उससे डर के मारे भी उसके खिलाफ आवाज़ बुलंद नहीं कर पा रहे थे। उस यज़ीद ने इमाम हुसैन को भी खत लिखा था कि वो उसके रास्ते पर चलें लेकिन इमाम हुसैन (अस) ने उससे साफ कह दिया कि ज़िल्लत की ज़िंदगी से बेहतर इज़्ज़त की मौत है। मुझ जैसा तुझ जैसे के रास्ते पर नहीं चल सकता। बस तभी इमाम हुसैन मोहर्रम महीने की 2 तारीख होती है और इराक़ के करबला में अपने बीवी बच्चों, साथियों के साथ कूफा शहर जा रहे होते हैं तभी यज़ीद की फौज उन्हें घेर लेती है। और पास में नहर-ए-फुरात पर भी पाबंदी लगा देती है कि जिससे इमाम हुसैन के काफिले तक पानी ना पहुंचाया जा सके। 2 मोहर्रम से लेकर 7 मोहर्रम तक इमाम हुसैन और उनके काफिले के पास जितना पानी था वो खत्म हो जाता है। और 7 मोहर्रम से लेकर 10 मोहर्रम (आशूरा) तक इमाम हुसैन का पूरा काफिला भूखा प्यासा रहता है। इस काफिले में छोटे-छोटे बच्चे से लेकर 80 साल तक के बुजुर्ग भी थे जिन्हें एक बूंद पानी तक ना मिल सका और आखिर में यज़ीद की फौज ने जब देखा कि इमाम हुसैन और उनका काफिला भूखा प्यासा रहने के बाद भी अभी तक यज़ीद के साथ होने के लिए तैयार नहीं है तो यज़ीद की फौज ने इमाम हुसैन के काफिले पर हमला कर दिया। इस तरह दोपहर 4 बजे तक इमाम हुसैन के काफिले में 70 लोगों की शहादत हो चुकी थी, बस आखिर में इमाम हुसैन और उनका 6 महीने का बच्चा बचा था। जिसके बाद इमाम हुसैन उस बच्चे को अपनी गोद में लेकर उन ज़ालिम के पास गए और कहा कि तुमने मेरे हर एक साथी को तो शहीद कर दिया है अब इस बच्चे को तो पानी पिला दो। लेकिन जिन ज़ालिमों ने 70 लोगों को बेहरमी से मार दिया था वो इस छोटे बच्चे पर क्या रहम खाते, उन्हीं फौज में से एक हुरमुला नाम के तीरांदाज ने तीन मुंह का तीर निकाला और उस छोटे से बच्चे के गले पर मार दिया। मासूम के गले पर तीर लगने के बाद उसकी भी शहादत हो जाती है, और बाद में उस ज़ालिम फौज ने इमाम हुसैन पर भी तीर, तलवार, नेज़े की बारिश कर दी और इमाम हुसैन भी शहीद हो जाते हैं। वहीं इमाम हुसैन की बीवी बच्चे, बहने और एक बीमार बेटे आदि को यज़ीद की फौज कैदी बना लेती है। जिन्हें करबला (इराक) से सीरिया के दमिश्क तक  पैदल ले जाकर कैद कर देती है।  बस यहीं वो मंज़र था जिस पर हर एक धर्म का इंसान इमाम हुसैन की शहादत को याद करता है, इमाम हुसैन अगर यज़ीद के रास्ते पर चले जाते तो शायद यज़ीद उन्हें क़त्ल ना करता लेकिन इमाम हुसैन ने 61 हिजरी यानि तकरीबन 1400 साल पहले बता दिया कि इंसानियत और हक़ पर चलने वाला इंसान कभी ज़ालिम के आगे अपना सर नहीं झुका सकता चाहे उसकी जान तक चली जाए। 



प्रधानमंत्री नरेंद मोदी: इमाम हुसैन (स.अ.व.) ने अन्याय को स्वीकार करने के बजाय अपना बलिदान दिया। वह शांति और न्याय की अपनी इच्छा में अटूट थे। उनकी शिक्षाएं आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी सदियों पहले थीं। इमाम हुसैन के पवित्र संदेश को आपने अपने जीवन में उतारा है और दुनिया तक उनका पैगाम पहुंचाया है। इमाम हुसैन अमन और इंसाफ के लिए शहीद हो गए थे। उन्होंने अन्याय, अहंकार के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलंद की थी। उनकी ये सीख जितनी तब महत्वपूर्ण थी उससे अधिक आज की दुनिया के लिए ये अहम है।